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एक लोकतांत्रिक देश में सेना को नागरिकों को बिना कोई वजह बताए पकड़ने, जेल में ठूस देने या जान से मार देने का अधिकार क्यों दिया जाना चाहिए, यह मेरे समझ के बाहर की बात है। आख्रिर देश का कानून पुलिस, अर्धसैनिक बलों और सेना को इस बात का अधिकार तो देता ही है कि वे अपराधियों को पकड़ें और अदालत में उनका दोष सिद्ध करवाकर उन्हें सजा दिलावाएं। अगर वे ऐसा नहीं कर पा रहे हैं तो इसकी दो-तीन ही वजहें हो सकती हैं, या तो कानून कमजोर है या फिर मामला फर्जी है या फिर जांच कायदे से नहीं हुई। अगर इनमें से कुछ भी है तो उसे दुरुस्त करने की जिम्मेदारी भी व्यवस्था की है। लेकिन अगर वो ऐसा नहीं कर पा रही है तो भला उसे ये अधिकार क्यों दे दिया जाए कि वह किसी इलाके को अशांत घोषित करके वहां किसी भी इनसान को बिना उसका दोष जाने अथवा सिद्ध करे, सीधे गोली मार दे। तिसपर उससे कोई सवाल-जवाब तक न किया जाए। यह कौन-सी लोकतांत्रिक व्यवस्था है?
इसीलिए मुझे इन दिनों सशस्त्र सेना विशेष अधिकार कानून (आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट या एएफएसपीए) को लेकर चल रही ऊहापोह से बड़ी बेचैनी सी हो रही है। अभी भले ही यह बहस कश्मीर को लेकर चल रही हो, लेकिन यह कानून कश्मीर के अलावा देश के पूर्वोत्तर के कई राज्यों में भी लागू है, और अब से नहीं, कई सालों से या कई दशकों से लागू है। आखिर हमने उससे हासिल क्या किया? प्रत्यक्षतः यह कानून उन इलाकों में लागू किया गया जहा सरकार का शासन सामान्य तौर पर चलाने में दिक्कत आ रही थी क्योंकि वहां के लोग खुद को दिल से भारत के साथ जोड़ नहीं पा रहे थे, इसलिए विरोध पर उतारू थे। लेकिन आखिर इसे सोचा तो एक तात्कालिक उपाय के तौर पर ही गया होगा। फिर भला क्यों यह उन इलाकों में शासन चलाते रहने का महत्वपूर्ण औजार बन गया? जहां-जहां यह कानून लागू है, आज वहां यह दमन के प्रतीक के तौर पर जाना जाता है। उसने लोगों के दिलों को जीतने या भारत के प्रति नफरत कम करने में रत्तीभर भी योगदान नहीं दिया। उलटे नफरत बढ़ाने का भरपूर काम किया। 1958 में पूर्वोत्तर में लागू होने के बाद से इस कानून का सारा इतिहास सुरक्षा बलों की ज्यादतियों व काली करतूतों से भरा पड़ा है। कश्मीर में तो इसे बीस साल पहले लागू किया गया। मणिपुर में तो इसके विरोध में इरोम शर्मिला चानू दस साल से अनशन पर हैं जो दुनिया के राजनीतिक आंदोलन इतिहास की विलक्षण घटना है। लेकिन हम संवेदनहीन क्यों हैं?
सवाल यह है कि उन इलाकों में 52 साल में इस कानून का सहारा लेकर हम क्या बदल सके? हम कहीं कुछ नहीं बदल सके, वहां वे भारत को बाहर का मानते हैं और यहां दिल्ली में हम पूर्वोत्तर के लोगों को बाहरी मानते हैं। मिलाना था तो दिल से मिलाना था, लेकिन एक कानून का डंडा चलाने के अलावा हमने लोगों के दिलों को जीतने का कोई काम नहीं किया। ठीक इसी तरह कश्मीर में हमने कुछ पैकेज घोषित करके उसे उसके हाल पर छोड़ने के अलावा कुछ नहीं किया। इससे फिरकापरस्त ताकतों को वहां मनमर्जी चलाने का मौका मिल गया। अब भी इस काले कानून को हटाने की बात चलती है तो हमें ऐसा लगने लगता है मानो सब हमारे हाथ से निकला जा रहा है, इसलिए सरकार उस कानून को छोड़ना नहीं चाहती, भले ही वहां के लोग उससे लगातार दूर होते जाएं। यह समझना और भी मुश्किल है कि इस कानून का भला सेना के मनोबल से क्या मतलब है और क्यों सेना को कुशलता से काम करने के लिए (जैसा कि वायुसेना प्रमुख पी.वी. नाइक दलील दे रहे थे) किसी बेगुनाह को बिना किसी वजह या चेतावनी के मार डालना और बदले में किसी सवाल का जवाब तक न देने का अधिकार जरूरी है?</font
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