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जहर की कमाई

फाकामस्ती
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भोपाल में जिस समय यूनियन कार्बाइड की गैस अपना जहर फैला रही थी, अपनी उम्र बहुत छोटी रही। दसवीं जमात में पढ़ता था। देश-दुनिया की समझ होनी शुरू ही हुई थी। महीना भर पहले ही इंदिरा गांधी की हत्या हुई थी और आजाद देश ने शासन समर्थित जातीय नरसंहार का पहला वाकया देखा था (दूसरा गोधरा के बाद गुजरात में हुआ)।
उस उम्र में भोपाल त्रासदी की व्यापकता का इतना अंदाजा नहीं हुआ, जितना सात साल बाद पत्रकारिता में आने के बाद समझ में आना शुरू हुआ, जब खबरों से उलझना शुरू किया। हर साल 2-3 दिसंबर को भोपाल कांड की बरसी को एक अखबारी जलसे की तरह मनाया जाता। उसके दस साल बाद उस रात की विभीषिका को थोड़ा और समझने का मौका मिला जब दामिनिक ला पिएरे और जेवियर मोरो (जी हां, ये वही हैं जिनकी सोनिया गांधी पर किताब लाल साड़ी इन दिनों बवाल मचाए हुए है) की अंग्रेजी किताब फाइव पास्ट मिडनाइट इन भोपाल का हिंदी में अनुवाद किया।
लोगों की तकलीफ का थोड़ा और अंदाजा हुआ नागरिक आंदोलनों से थोड़ी नजदीकी के बाद। उधर मीडिया सालाना बरसी के अलावा 10 साल, 20 साल और 25 साल के आयोजन व्यापक तौर पर करता रहा। और अब यह फैसला। सारा देश मानो इस फैसले पर उबल पड़ा। भोपाल के पीडि़तों का आंदोलन सिविल सोसायटी का अपने किस्म का सबसे बड़ा आंदोलन रहा। यह भी एक अलग ही मिसाल है कि सारी लड़ाई खुद पीडि़तों ने लड़ी। बाकी लोग और मीडिया तो तमाशबीन ही ज्यादा रहे। अब अचानक सब ऐसे बौखला रहे हैं मानो उनके पैरों से धरती खिसक हो गई हो। इसीलिए यह भी मिसाल ही है कि किसी अदालती फैसले की इतनी आलोचना हुई हो। लेकिन हकीकत तो यह है कि यह तो होना ही था।
1996 में जब सुप्रीम कोर्ट ने इस मुकदमे की धाराएं तय कर दी थीं तो इसमें और किसी फैसले की कोई गुंजाइश ही नहीं थी। उस समय सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर त्यौरियां न चढ़ाने वाले अब घडि़याली आंसू क्यों बहा रहे हैं? अगर इतना हल्ला सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले पर मचा होता तो मुकदमे की और सख्त धाराएं तय हुई होतीं, ज्यादा कड़ी सजा आज मिली होती। न उस समय मीडिया ने इस बात पर जमीन-आसमान एक किया कि क्यों अमेरिकी कंपनी को मुकदमे से अलग कर दिया गया। वारेन एंडरसन को तो उसी फैसले ने इस दोष से मुक्त कर दिया था, फिर अब हम सीबीआई की पड़ताल पर क्यों छाती पीट रहे हैं। आखिर भोपाल के पीडि़तों से कोई न्याय रातों-रात तो नहीं चुरा ले गया। इसकी शुरुआत तो घटना के चार दिन बाद वारेन एंडरसन के भारत आने, गिरफ्तार किए जाने और फिर केंद्र सरकार के फरमान पर चुपके से सरकारी विमान में दिल्ली ले जाकर भारत से भगा दिए जाने के साथ ही हो गई थी। (अब 26 साल बाद सारे लोग उस हकीकत को उजागर करने पर तुले हुए हैं। जब बोलने से फर्क पड़ता, तब किसी ने नहीं बोला।) दोषियों को सजा देने से लेकर पीडि़तों को मुआवजा देने तक हर कदम पर सरकारों और अदालतों ने भोपाल के साथ धोखा किया लेकिन किसी ने हल्ला नहीं मचाया। कोर्ट ने पीडि़तों के लिए उतना मुआवजा कंपनी के खाते से तय कर दिया जितना कंपनी के पास इंश्योरेंस कवर था, यानी कंपनी को अपनी जेब से कुछ न देना पड़ा। लेकिन उस समय भी किसी ने हल्ला नहीं किया।
लेकिन हम भी जानते हैं कि सारा हो-हल्ला कुछ दिनों के लिए है। राज्य सरकार ने अपील का फैसला कर लिया, केंद्र सरकार ने उन्हीं चिदंबरम के नेतृत्व में जीओएम गठित कर दिया जो केंद्र सरकार में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सबसे बड़े हितैषी हैं, राजनीतिक पार्टियों ने भी प्रेस कांफ्रेंस करके मर्सिया पढ़ लिया, मीडिया ने स्पेशल पैकेजिंग के साथ इतिश्री कर ली। भोपाल त्रासदी की सबसे मार्मिक फोटो में से एक (जिसमें दफन किए जाते एक शिशु का चेहरा दिख रहा है) खींचने वाले प्रख्यात फोटोग्राफर पाब्लो बार्थोलेम्यू ने ठीक लिखा- हम पत्रकार सिर्फ अगली खबर की ओर बढ़ जाते हैं। हमारे लिए हर चीज सिर्फ खबर है..

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