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यूं तो किसी का भी खून हाथों पर लेकर कोई कैसे सो सकता है लेकिन खून अपनी ही बेटी का हो तो और भी यकीन करना मुश्किल है। बेटी का दोष- उसने किसी विजातीय पुरुष के साथ प्रेम किया था। हैरत की बात है कि बर्बरता की यह पराकाष्ठा देश के पढ़े-लिखे तबके और संपन्न इलाकों में भी उसी वीभत्सता के साथ देखने को मिल रही है। यह हकीकत है कि हम ज्यादा विकसित होने के साथ ज्यादा बर्बर, ज्यादा अधीर और ज्यादा असहिष्णु हो रहे हैं। संवेदनशीलताएं खत्म हो रही, कत्ल परिष्कृत हो रहे हैं। हत्याओं को जायज ठहराने के नए-नए बहाने गढ़े जाते हैं। लोग दूसरों की लाशों पर आगे बढ़ने की कवायद में महारत हासिल कर रहे हैं। अपराध की खबरें एक जुगुप्सा के साथ नहीं बल्कि रस के साथ पढ़ी जाती हैं।
लेकिन ऐसे दौर में भी अपनी ही बेटी का धोखे से कत्ल सिहरन तो पैदा कर ही देता है। वह भी केवल इस जुर्म के लिए कि उसने अपना जीवनसाथी खुद चुना। निरुपमा पाठक दिल्ली में पत्रकार थीं तो मां की झूठी बीमारी के बहाने अपने घर कोडरमा बुलाकर परिवार वालों द्वारा उनकी हत्या खबर भी बनी और उस पर कार्रवाई होने की संभावना भी जगी। यहां तो हत्या करके परिजनों ने उसे आत्महत्या का रूप देना चाहा। लेकिन उनका क्या जो देश के कानून का मखौल उड़ाते हुए खालिस तालिबानी अंदाज में पंचायत बुलाकर सरेआम प्रेमी युगलों को मार डालने का आदेश दे देते हैं और उनके माता-पिताओं की उसमें स्वीकृति शुमार होती है। लिहाजा लोग अमानुषीय तरीके से अपनी ही संततियों को जहर दे देते हैं, फांसी पर लटका देते हैं, गोली मार देते हैं, जला डालते हैं और उस के बाद धर्म, जाति व गोत्र के नामपर हर तरीके से उसे जायज ठहराने की कोशिश करते हैं। वहीं हमारी सामाजिक-राजनीतिक-प्रशासनिक व्यवस्था केवल कोई फैसला लेने से बचने के लिए आड़ ढूंढती रहती है। यह सजा- केवल प्रेम करने के लिए? वो भी उस दौर में जब दुनिया से प्रेम लगातार कम होता जा रहा है? लेकिन इस बहस में न भी उलझूं तो मेरा मूल सवाल मुझे लगातार परेशान किए रहता है। मेरी बेटी रात में नाराज होकर सो जाए तो मुझे पूरी रात बेचैनी रहती है, फिर भला ये लोग अपनी संततियों के खून से सने हाथों के साथ कैसे सो पाते हैं?
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