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किसकी निष्ठा ओढ़ूं

फाकामस्ती
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आईपीएल में दिल्ली की टीम फिर हार गई। लेकिन मायूस होऊं या नहीं, समझ नहीं आ रहा। रविवार को भी दिल-दिमाग का लगभग यही हाल था जब मुंबई ने राजस्थान को जयपुर में पहली हार थमाई थी। किसकी जीत पर खुश होऊं और किसकी हार पर मायूस- बड़ा कंफ्यूजन हो जाता है। पैदा राजस्थान में हुआ। राजस्थानी हूं तो जाहिर है राजस्थान रॉयल्स से थोड़ी निष्ठा है। लेकिन जीवन के चालीस सालों में से 20 तो दिल्ली में बिता दिए। लिहाजा दिल्ली मेरा दूसरा घर हुआ, इसलिए दिल्ली डेयरडेविल्स से निष्ठा न दिखाऊं तो ठीक न होगा। लेकिन दीवाना मैं मुंबई इंडियंस का हूं क्योंकि वह सचिन की टीम है। इस आईपीएल में दिल्ली व राजस्थान के मैचों की फिक्र मैंने की हो या न की हो, मुंबई के मैचों की फिक्र मैंने हमेशा की है। कोशिश करके उसके हर मैच का हाल लेता रहा, भले ही रात में दफ्तर से बाइक पर घर लौट रहा हूं या इंडिया गेट पर संडे की शाम बिटिया के साथ फुटबाल खेल रहा हूं। ऐसे में कई बार यह संदेह भी होने लगता है कि निष्ठा सचिन के लिए है या मुंबई इंडियंस के लिए या सचिन के लिए है या आईपीएल के लिए या सचिन के लिए है या क्रिकेट के लिए। आईपीएल के लिए निष्ठा होना थोड़ा मुश्किल है क्योंकि उसमें क्रिकेट के अलावा बाकी सब चीजों की चमक-दमक है, अश्लीलता है, भोंडापन है। क्रिकेट के लिए थोड़ी-बहुत जिंदा है, लेकिन उसमें बहुत योगदान सचिन जैसे क्रिकेटरों को है।
अक्सर होता है कि कुछ अतिमानव हमारे अवचेतन में हीरो बनकर जम जाते हैं। सचिन ने कुछ ऐसी ही जगह बनाई है। क्लासिकल क्रिकेट का शौकीन होने के कारण सचिन से पहले ऐसी ही जगह सुनील गावस्कर की थी। मेरे लिए तब क्रिकेट का मतलब गावस्कर से होता था। कमेंटरी सुनने का सारा शौक गावस्कर के मैदान में उतरने के साथ शुरू होता था और उसके आउट होते ही खत्म हो जाता था। मुझे अब भी याद है 1981 में लाहौर टेस्ट में गावस्कर क्रीज पर थे। मैं सातवीं में पढ़ता था। उदयपुर की हाउसिंग बोर्ड की कॉलोनी में दो कमरे के छोटे से घर में स्कूल से लौटकर सर्दियों की गुनगुनी धूप में छत पर खाना खा रहा था। गावस्कर शतक के नजदीक थे। छत पर चढ़ने के लिए सीढि़यां नहीं थी, बस दीवार में पत्थर खोंसे हुए थे। नीचे से दही लेकर छत पर चढ़ रहा था। ऊपर खाने की थाली के बगल में रखे रेडियो पर कमेंटरी ऊंची आवाज में चल रही थी। छत से दो ही पत्थर दूर था कि अचानक सरफराज नवाज की गेंद पर गावस्कर आउट हो गए। सुरेश सरैया के मुंह से निकला गावस्कर आउट और मेरा पांव पत्थर से फिसल गया। शुक्र था नीचे आकर नहीं गिरा बल्कि एक पत्थर नीचे आकर अटक गया। चोट लगी और मैच आगे सुनने और खाना खाने- सबका मजा जाता रहा। खिलाड़ी जब हीरो बन जाते हैं, तो उनसे ऐसा ही लगाव हो जाता है शायद।
गावस्कर ने बल्ला टांगा तो तीन ही साल बाद सचिन ने खालीपन को भर दिया। सचिन के साथ जुड़ाव इसलिए भी बना क्योंकि उनका कैरियर लगभग हम साथी लोगों के कैरियर के साथ-साथ ही परवान चढ़ा। उन्हें छोटे से दीये सा निकल कर सूरज बनकर छा जाते देखा। बीस सालों में रोज अपनी कलम से उनके खेल का पोस्टमार्टम किया, सवाल खड़े किए और उन्हें हर बार खरे उतरते पाया। जब ऐसा हो तो ये हीरो खेल से जुड़े रहने का जरिया बन जाते हैं। हमारे दौर में जफर इकबाल हों या प्रकाश पादुकोण या पीटी ऊषा- सबने ये काम किया। अब ऐसे हीरो की कमी महसूस होने लगी है।

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