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शाहरुख खान को मैं अभिनेता के तौर पर ज्यादा पसंद नहीं करता। हालांकि उनकी ज्यादातर कामयाब व चर्चित फिल्में मैंने देखी हैं। मैं उन्हें शोमैन ज्यादा मानता हूं। लेकिन उनके हाल के दो गैरफिल्मी काम या कहें तो दो टिप्पणियां मुझे बेहद पसंद आईं। एक तो जब उन्होंने खुलकर माना कि आईपीएल की नीलामी में पाकिस्तानी खिलाड़ियों के साथ नाइंसाफी हुई (हालांकि मुझे अब तक यह नहीं समझ में आया कि फिर उनकी अपनी टीम ने किसी पाकिस्तानी खिलाड़ी पर कोई दांव क्यों नहीं खेला। क्या उन्हें खुद भी भीतरी खेल का पता न था?)। दूसरी बात, जो उन्होंने आज शिवसेना से माफी मांगने से इनकार कर दिया (ज्यादा खुशी होगी अगर वे इस लड़ाई को अंजाम तक ले जाएं, बीच में न छोड़ें)।
मनोहर जोशी को आज टीवी पर यह कहते देख हैरानी हो रही थी कि बालासाहेब ने कहा है तो माफी तो मांगनी ही होगी। यह शायद भारत में ही मुमकिन है जहां कोई राजनीतिक पार्टी देश के एक नागरिक को इस तरह खुलेआम धमकी दे सकती है। लेकिन मुझे इससे भी ज्यादा हैरानी इस बात पर हो रही थी कि अब तक बॉलीवुड के किसी भी बड़े खिलाड़ी ने अपनी इंडस्ट्री के आज के दौर के इस सबसे बड़े शोमैन के समर्थन में बयान नहीं दिया। कुछ ऐसी ही हैरानी उस वक्त भी हुई थी जब मुकेश अंबानी के खिलाफ शिवसेना की बकवास पर उद्योग जगत की किसी भी बड़ी हस्ती ने मुंह नहीं खोला, जबकि लगभग सभी के मुख्य अड्डे मुंबई में ही हैं। लगता है कि शिवसेना या मनसे के पच्चीस-पचास-सौ गुंडों के पत्थरों का डर सभी को है। इसीलिए शाहरुख की तारीफ करता हूं कि उन्होंने अपने घर पर पत्थरबाजी के बाद भी रुख में नरमी पैदा नहीं की। जानता हूं कि शाहरुख की नजदीकी कांग्रेस से है और मुंबई व महाराष्ट्र में इस साऱी नफरत की जड़ में किसी न किसी रूप में कांग्रेस ने भी पानी ही डाला है, उसे पाला-पोसा है। उसके अपने स्वार्थ हैं।
लेकिन सबसे बड़ा सवाल मुझे हैरान करने वाला यही है कि आखिर बाकी मुंबई क्यों चुप रहती है? आखिर मुंबई में सारे लोग शिवसेना को वोट देने वाले नहीं हैं। शायद आधे से भी बहुत कम ही होंगे। जो शिवसेना की बीमार मानसिकता के बंधुआ हैं, उनकी बात तो समझ में आती है, लेकिन जो नहीं हैं, वे चुप क्यों हैं? क्या शिवसेना की ताकत हमारे बॉलीवुड या उद्योग जगत की साझा ताकत से भी ज्यादा है? अगर कल को अमिताभ, आमिर, सलमान, लता मंगेशकर, आशा भोंसले, दिलीप कुमार, देवानंद, जैसी हस्तियां मिलकर या मुकेश अंबानी, रतन टाटा, वाडिया, आदित्य बिड़ला जैसे उद्योगपति मिलकर शिवसेना की नातियों के खिलाफ बयान भर जारी कर दें तो क्या शिवसेना की इतनी हैसियत है कि वह इन सबकी मुखालफ़त एक साथ कर सके? लेकिन समस्या यह है कि यह वो तबका है जो अपना नफा-नुकसान पहले सोचता है। ये दोनों ही जमात ऐसी हैं जिन्होंने वक्त-वक्त पर शिवसेना के मुखिया के साथ मंच साझा किए हैं, फायदे पहुंचाए हैं, फायदे उठाए हैं। उसी के चलते मुंबई की हर ऊंच-नीच पर ठाकरे के ह बेसिर-पैर के बयान को सिर-आंखों पर लिया जाने लगा। मुंबई मतलब ठाकरे हो गई। मुंबई की ताकत बॉलीवुड है, इसीलिए स्मिता ठाकरे शिवसेना की धमक की ही बदौलत बॉलीवुड में बड़ी शख्सियत बन गई (अब भले ही वे अपने ससुर से परे जा चुकी हैं)। शिवसेना की यूनियनों की धमकी ही ज्यादातर उद्योगपतियों का मुंह बंद किए रहती है।
लेकिन बॉलीवुड और उद्योग जगत के अलावा भी तो मुंबई में लोग हैं। इसीलिए यह सवाल लगातार हैरान किए रहता है कि बाकी मुंबई चुप क्यो है?
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