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देश में साहित्य की सबसे बड़ी ठेकेदार संस्था साहित्य अकादमी ने बहुराष्ट्रीय उपभोक्ता उत्पाद कंपनी सैमसंग के साथ मिलकर टैगोर साहित्य पुरस्कार स्थापित किए हैं। पहली कड़ी में हिंदी समेत आठ भाषाओं के लिए कल यानी २५ जनवरी को ये पुरस्कार दिए गए। चूंकि सैमसंग कोरियाई कंपनी है और दक्षिण कोरिया में खासा रसूख रखती है, इसलिए ये अवार्ड भी कोरियाई राष्ट्रपति की पत्नी ने दिए। आप सबको ध्यान ही होगा कि आज गणतंत्र दिवस समारोह में कोरियाई राष्ट्रपति मुख्य मेहमान थे।
साहित्य अकादमी और सैमसंग की इस जुगलबंदी ने देश के साहित्य जगत में खासी खलबली मचा दी है। साहित्य बिरादरी के बड़े हिस्से का मानना है कि यह गठजोड़ साहित्य व सांस्कृतिक आजादी के लिए खतरा है। सैमसंग को अवार्ड देना हो, दे लेकिन साहित्य अकादमी को इसके साथ हाथ मिलाने की भला क्या जरूरत थी। दुनिया के किसी देश में इसकी मिसाल नहीं मिलती कि वहां की सर्वोच्च साहित्यिक संस्था किसी विदेशी कंपनी से पैसा व मंजूरी लेकर अपने साहित्यकारों को अवार्ड बांटे। चूंकि साहित्य अकादमी संस्कृति मंत्रालय के अधीन आती है और इस मंत्रालय का कामकाज सीधे प्रधानमंत्री देख रहे हैं तो, यह मानना मुश्किल है कि अकादमी ने केवल अपने तई इतना बड़ा गठजोड़ कर लिया होगा। इसीलिए साहित्य जगत इसे सरकार के फैसले के तौर पर मान रहा है।
लिहाजा देश के तमाम शीर्ष कवि व साहित्यकार- महाश्वेता देवी से लेकर नामवर सिंह, मैनेजर पांडेय, अशोक वाजपेयी, मंगलेश डबराल तक, इसके विरोध में खड़े हैं। सभी लेखक व सांस्कृतिक संगठनों ने इसके खिलाफ मोर्चा ले रखा है। लेकिन हमारी साहित्य अकादमी के अध्यक्ष सुनील गंगोपाध्याय इससे बेफिक्र हैं। सरकारी डुगडुगी बजाते हुए उन्होंने तो अवार्ड समारोह में खुलकर कहा कि सैमसंग के अलावा भी और कंपनियां आएं, इनाम बांटे, उनका स्वागत है। बेफिक्री भले ही वे दिखा रहे हों, लेकिन वे भीतर तक डरे थे। अवार्ड समारोह में भारी सुरक्षा थी, पीएम की कांफ्रेंस सरीखी। प्रवेश केवल आमंत्रण कार्ड पर था लेकिन कई कार्डधारी पत्रकारों को भी प्रवेश नहीं मिला। कह दिया गया कि हमारी सूची में आपका नाम नहीं आपके कार्ड का नंबर हमारी सूची से मेल नहीं खाता। खास तौर पर उन अखबारों के पत्रकारों को रोका गया जो कुछ दिनों से साहित्य अकादमी के इस फैसले के खिलाफ मोर्चा लिए हुए थे। जन संस्कृति मंच ने अवार्ड स्थल ओबरॉय होटल के बाहर मानव श्रृंखला बनाने का ऐलान किया था तो दिल्ली पुलिस ने देर रात उसकी इजाजत देने से मना कर दिया। मानव श्रृंखला फिर साहित्य अकादमी के बाहर बनाने का फैसला किया गया तो इसके लिए वहां पहुंच कवियों, साहित्यकारों से पांच गुना संख्या में पुलिसकर्मी साहित्य अकादमी को इस तरह से घेरे हुए थे, मानो वहां कोई आतंकवादी हमला होने वाला हो।
इन सबसे यही तो जाहिर होता है कि अकादमी खुद अपने फैसले को लेकर कितनी आशंकित थी। पक्ष में तर्क देने वाले कह रहे हैं कि आखिर गरीब साहित्यकारों को धन मिले तो क्या हर्ज है? लेकिन इसमें भी ये दो सवाल तो हैं ही कि क्या तंत्र वाकई इतना कंगाल है कि उपयुक्त लोगों को सम्मानित नहीं कर सकता, और दूसरा यह कि क्या इस तरह से सम्मानित होने वाला रचनाकार क्या अपनी निष्पक्षता बरकरार रख पाएगा? साहित्यकार व कलाकार अपनी फितरत में व्यवस्था, उपभोक्तावाद व साम्राज्यवाद विरोधी होते हैं। ऐसा पुरस्कार पाकर उनका मूल ही स्वाहा नहीं हो जाएगा?
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