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तीन दिन पहले हमारे किसानों के पॉवर साहब ने कहा था कि चीनी की कीमतें नीची आ रही हैं। शाम तक हमारे तेजतर्रार टीवी चैनलों में से कुछ के उत्साहमंद रिपोर्टरों ने बाजार की सैर करके बता भी दिया कि थोक बाजारों में चीनी की कीमतों में तीन से चार रुपये तक और खुदरा बाजार में एक रुपये किलो की कमी आई है। अगले दिन सवेरे बेटी को स्कूल छोड़कर लौटते हुए अपने मोहल्ले की किराने की दुकान पर चीनी लेने रुका- कीमतें कम होने की गरज से नहीं बल्कि घर में चीनी खत्म थी, इसलिए। चीनी मिली ४८ रुपये किलो। दुकानदार को पॉवर साहब के दावे का हवाला दिया तो उसने उसे उसी तरह हंसी में उड़ा दिया जैसे सरकारें महंगाई की हकीकत के दावे को रोज-ब-रोज उड़ा रही हैं। बातों-बातों में दुकानदार बताने लगा कि कैसे त्रिलोकपुरी में एक होलसेलर आजकल केवल मवाना चीनी (मोटे दाने वाली, जो आम चीनी से तीन से चार रुपये किलो महंगी होती है) की पेटियां इधर से उधर करके कमा रहा है। उसका मुनाफा महज एक से दो रुपये फी पेटी का है। लेकिन उसकी उसी में चांदी हो रही है। अब भाई, जो बात हमारे छोटे से दुकानदार को मालूम थी, क्या पॉवर साहब को मालूम नहीं होगी। दुकानदार खुद बोलने लगे हैं कि मंत्री जी जमाखोरों को संदेश देने का काम करते हैं। आगे मदर डेयरी पर पहुंचा तो मक्खन की सौ ग्राम की टिकिया २५ रुपये में मिली। अच्छी तरह याद था कि पिछली बार यह टिकिया २३ रुपये में खरीद कर ले गया था। दो दिन बाद पॉवर साहब ने दूध की किल्लत का भी ऐलान कर दिया। अगली बार मक्खन कितने में मिलेगा, पता नहीं। हालांकि मैंने मक्खन की चिंता करना बंद कर दिया है क्योंकि डॉक्टर ने हाई ब्लड प्रेशर की चिंता डाल दी है और मक्खन खाने से मना कर दिया है। लेकिन बेटी को तो बन पर मक्खन लगाकर खाने में बड़ा मजा आता है।
कीमतों पर अपनी नजर तब से है, जब हमारे खबरनवीसों को इसकी भनक तक नहीं थी। बहुत पहले (लगभग तीन साल) मैंने रिपोर्टरों से कहा था कि दालें बढ़ रही हैं, लेकिन कोई न माना। महीनों बाद जब नवभारत टाइम्स ने पहले पेज पर थाली सजाकर कीमतें बताई तो हल्ला हो गया कि कीमतें बढ़ रही हैं। खेल तो काफी पहले से शुरू हो गया था। किराने की दुकान पर गया था तो उसने बताया था कि आजकल चार रुपये में आने वाला पारले जी का पैकेज कुछ ढीला हो गया है। पहले बिल्कुट ठसाठस भरे रहते थे, अब कुछ मामला कम हुआ लगता है। यह बात हर खाने की पैकेज्ड वस्तु पर थी। किसने ध्यान दिया कि हल्दीराम की भुजिया का दस रुपये का पैकेट नब्बे ग्राम से कम होकर कब सत्तर ग्राम तक पहुंच गया।
हैरानी इस बात की है कि इस हल्ले के बाद अगर कीमतें कुछ कम भी हो गईं तो जीत किसकी होगी। अरहर की दाल नब्बे रुपये से कम होकर सत्तर पर आ गई या चीनी पैंतीस रुपये पर आ गई तो क्या हम मान लेंगे कि महंगाई कम हो गई? दो साल पहले चीनी सोलह रुपये थी। सोलह से पैंतीस का हिसाब कौन देगा? इसी तरह दाल के पैंतालीस रुपये से पचहत्तर रुपये के बीच का हिसाब कौन देगा। हैरानी होती है कि हम कैसे चीजें बरदाश्त करने के आदी है गए हैं।
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